खुशियों की तलाश भाग 13

जब दर्द हद से ज्यादा बढ़ जाता है, तो आपके पास सिर्फ दो विकल्प होते है एक डॉक्टर और एक भगवान..!!

डॉक्टर के पास जाने पर आपको अधिक पैसे खर्च करने पड़ते है और भगवान के पास जाने के लिए थोड़े कम पैसे लगते है..!!

अब आप सोच रहे होंगे कि भगवान के पास जाने के लिए पैसे कहां लगते है..??

तो शायद आपने ध्यान न दिया होगा, मंदिर में प्रसाद भी उन्हीं को मिलता है जो या तो प्रसाद खरीदते है या तो चढ़ावा में न्यूनतम 5 रुपये/10 रुपये चढ़ाते है..!!

तो ऋषभ को कैसे मिल जाता..??

जी हाँ ऋषभ जब नोटबन्दी से बिखरा हुआ सामान समेट रहा था तब उसको उसके जीवनसंगिनी आशा के साथ जीवन जीने में असफलता हाथ लगी थी, जिसे आपने पिछले भाग में पढा था..उसी वक़्त उसको तलाश थी ऐसे डॉक्टर या भगवान की जो उसके दर्द को कम कर देता..!!

डॉक्टर के पास जाने से ऋषभ घबराया करता था क्योंकि बचपन से वो डॉक्टर के पास जाते जाते समझ चुका था कि उसका पूर्णतया इलाज़ हो पाना सम्भव नहीं..!! और कई बार उसे भगवान के द्वारा राहत भी मिल चुकी थी तो उसे विश्वास हो चला था कि सबका मालिक एक है..!!

इसीलिये उसने भगवान का रास्ता अख़्तियार किया..!!

भगवान के मिलने की भी राह आसान नहीं होती, उनसे मिलने के लिए भी साधनों की आवश्यकता पड़ती है..!!

आप में से कई लोग कहेंगे कि भगवान मंदिर में खोजने की आवश्यकता वो तो इंसानो में ही मिल जाते है, पत्थरो में मिल जाते है, नदियों में मिल जाते है, पहाड़ो में मिल जाते है, माँ पिता में मिल जाते है, आदि आदि..!!

लेकिन खोज तो करनी ही पड़ती है न, हर जगह मिलते है ये अच्छी बात है, आपके कथनानुसार..!!

ऋषभ प्रतिदिन खोज के चलते संगम किनारे जाने लगा, जहां लेटे हुए हनुमान मंदिर पर बैठना उसका प्रतिदिन नियम था..!! वही लेटे हुए हनुमान जी जो विश्व प्रसिद्ध अकबर के किले के समीप है, जिसकी मान्यता है कि यहां पर मांगी गई हर एक दुआ कबूल होती है..!! और प्रसिद्धि का एक और कारण है वो है उनके लेटे हुए प्रतिमा, जो कि पूरे विश्व मे सिर्फ एक ही है..!!

ऋषभ को बालाजी में अटूट विश्वास था और वो चाहता था कि उसकी खुशियों की तलाश में बालाजी महाराज उसकी मदद करें..!!

मदद हुई भी, वही पर उसकी मित्रता कई अभिन्न मित्रों से हुई, जिसमें सुचित और पीयूष थे..!!

ऋषभ जैसे ही दोनों की जिंदगी में उथल पुथल चल रही थी..!! और वो भी महाकाल और बाला जी महाराज के अनन्य भक्त थे तो फलस्वरूप उन लोगों का मिलना स्वाभाविक था..!

कहा भी जाता है कि जब विचारधारा समान हो तो रिश्ते अटूट बन जाते है...और हुआ भी यही ऋषभ की जिह्वा के कायल बन गए थे सुचित और पीयूष, दोनों के मोबाइल नंबर भी आपस में एक दूसरे को प्रेषित किये जा चुके थे..!!

मुलाकात मंदिर से बढ़कर घर की ओर हो चली थी..!! और पारिवारिक प्रेम भी बढ़ता जा रहा था...उसी के चलते ऋषभ ने निर्णय लिया कि सूचित को वह अपने निजी जीवन की हर सच्चाई से रूबरू कराएगा..!!

जब ऋषभ की जीवंत कहानी सूचित ने सुनी तो उसको एहसास हो गया कि वो उसके अकेले का दुःख नहीं है, उसने वादा भी किया कि अब से तुम अकेले नहीं हो, हम मिलकर हर मुश्किल हालातो से लड़ लेंगे..!!

ऐसा इसीलिये हुआ क्योंकि दोनों के जीवन में लगभग लगभग दर्द एक सामान थे...!!

सूचित को भी प्यार में धोखे के सिवा कुछ हाथ न लगा था, व्यापार और मित्रता में भी उसने कई बार धोखे खाये थे..!!

इंतिहा तो तब हो गयी थी जब ऋषभ के आँख के सामने सूचित को धोखा दिया जा रहा था...ऋषभ ने सूचित को उस धोखे का कारण उसका ईमानदार होना बताया...और सूचित से ऐसे लोगों से सावधान रहने के लिए कुछ उपाय बताए..!!

वह उपाय था---- जब कभी किसी व्यक्ति विशेष के बारे में जानना हो तो उसके पुराने इतिहास, उसके मित्र व उसके परिवार से जान लो, अगर उसके रिश्ते उनसे अच्छे व सच्चे होंगे तो वो उस व्यक्ति विशेष की तारीफ ही करेंगे..!!

और अक्सर यही होता है कि गलती उस इंसान की नहीं होती तो भरोसा करता है, गलती उस इंसान की होती है जो भरोसे का फायदा उठाया करते है..!!

ऋषभ और सूचित की मित्रता गहरी हो चली थी क्योंकि वो एक दूसरे से राय मशवरा करके ही खुशियों की तलाश में लग गए थे..!!

वो कहते है न एक से भले दो..!!

तो यही था, ऋषभ ने अपने व्यापार में भी सूचित को हिस्सेदार बना लिया था क्योंकि विश्वास सबसे बड़ी पूंजी होती है..!!

कुछ ही वक़्त में ऋषभ और सूचित ने मिलकर व्यापार को इस ऊँचाई तक पहुँचा दिया था कि हर कोई जुड़ने के लिए लालायित हो चुका था..!!

लेकिन प्रेम आज भी दोनों के नसीब में था..!!

सूचित की प्रेमिका की मौत, ऋषभ के मित्रों की मौत ने उन्हें इस कदर अंधेरे में धकेल दिया था कि उन्हें अब जल्द किसी से प्रेम होने की संभावनाएं न के बराबर थी..!!

आपके साथ भी हुआ होगा कि यदि आपने किसी एक को प्रेम के बाद खो दिया होगा तो दूसरी बार खोने का डर आपके ह्रदय को पीड़ा पहुँचाता होगा..!!

दोनों मित्र एक दूसरे से मंत्रणा कर कुछ बड़ा करने के विचारों को लेकर आगे बढ़ते जा रहे थे...जिसमें पीयूष ने भी अपनी जिम्मेदारी लेने की बात स्वयं से आकर कही..!!

कौन नहीं चाहेगा कि ईमानदार व्यक्तियों की टोली एक साथ चले क्योंकि यदि ईमानदार एक हो गए तो बेईमान भाग खड़े होंगे..!!

पीयूष ईमानदार होने के साथ साथ मासूम भी था क्योंकि उसने कम उम्र में भी अपनी माँ को खो दिया था...और जिनकी माँ नहीं होती, ममता का आँचल नहीं होता, उनके जीवन में प्रेम की कमी को महसूस किया जा सकता है..!!

लेकिन उसके सूखे जीवन में आनंद से भरी एक जीवनसंगिनी भी थी...जो उसे बेहद प्रेम किया करती थी..!!

दोनों एक दूसरे से इतना प्रेम करते थे कि अगर ऋषभ या सुचित कभी कुछ कहा करते थे उसके विषय में तो पीयूष का मुंह देखने लायक होता था..!!

अब आप सोच रहे होंगे कि क्या कहते थे ऐसा..??

तो वही कहते थे जो धोखा खाये हुए इंसान कहते है कि बेटा थोड़ा ध्यान से, लगाव तक ठीक है ज्यादा प्रेम तकलीफ देता है..!!

लेकिन प्रेम करने वाला इंसान अंधा, बहरा होता है, उसे न तो कुछ दिखाई देता है और न ही सुनाई देता है..!! और इसीलिये कहावत भी कही जाती है कि---- प्यार अंधा होता है..!!

उसी अंधे प्यार में गोता लगाते पीयूष अपने जन्मदिन पर अपने मित्रों से दूर अपनी प्रेमिका के संग प्रेम की नगरी में विहार करने चल पड़ा..!!

साथ मे एक कबाब में हड्डी भी गयी थी, जी हाँ वही कबाब में हड्डी जो कभी कभी आपके साथ भी जाया करती है..!!

जी नहीं प्रेमिका की बहन या सहेली नहीं थी वो..!!

अक्सर होता यही है कि प्रेमिका की सहेली कबाब में हड्डी बनती है लेकिन यहां सूचित ने अपने मित्र को ले जाकर उस कहावत को परिपूर्ण कर दिया था..!!

और हड्डी गले में न अटके ऐसा हो ही नहीं सकता..वो न तो निगल सकते हो और न ही पलट सकते है..!!

उसी हड्डी की वजह से प्रेम प्रसंग ने ऐसा मौहाल बना लिया कि लड़ाई झगड़े शुरू हो गए..!!

कारण सिर्फ एक ही था--- समय

प्रेम मकान रूपी हृदय में कब्जा का विषय है, उसमे किराएदार रखना खतरे से खाली नहीं होता..!!

और जब पीयूष ने वही गलती की तो उसकी प्रेमिका द्वारा भी वो गलतियां करना स्वाभाविक है क्योंकि तै बड़ा कि मैं बड़ा...ये इलाहाबादी पहचान है..!!

और इसी पहचान के चलते दोनों के बीच काफ़ी कहासुनी बढ़ गयी और प्रेम प्रसंग सन्धि विच्छेद का शिकार हो गया..!!

लेकिन पीयूष ने उस सन्धि विच्छेद को ब्रेकअप पार्टी देकर एन्जॉय किया..!!

आपने संगीत सुना ही होगा, आज मैंने ब्रेकअप की पार्टी कर ली है..!!

लेकिन ये पार्टी अन्य ब्रेकअप पार्टियों से एकदम अलग थी, इसमें ऋषभ और सूचित के साथ ही साथ पीयूष की प्रेमिका भी शामिल थी..!!

और ऋषभ व सूचित के अनुभवों से उस पार्टी के अंत में प्रेम का अंत होने से बचा लिया गया था..!!

पीयूष और उसकी प्रेमिका फिर से एक बार प्रेम की नैया में सवार हो चुके थे..!!

प्रेम अध्यात्म का विषय है ये ऋषभ का मानना था..!!

जैसे भगवान नहीं मिलते प्रेम करने पर, वैसे ही प्रेमिका का मिल पाना सम्भव नही होता..!!

ऐसा सिर्फ ऋषभ का मानना था, सूचित ने विवाह के बाद प्रेम करने की ठान ली थी, और पीयूष को तो अभी प्रेम मिल गया था तो वो संतुष्ट था..!!

तीनो मित्रों की जिंदगी आगे बढ़ती जा रही थी,कि बुरे दौर ने दस्तक एक बार फिर दी..!!

पीयूष के एकमात्र सहारा उसके जीवन का आधार उसके पिताजी ने उसका साथ छोड़ दिया, लंबी बीमारी के चलते उनका निधन हो गया..!!

ऋषभ ने पीयूष को सम्भालने के लिए हर संभव कोशिश की क्योंकि मित्र का कर्तव्य होता है कि मित्र के सुख से अधिक उसके दुःख में सम्बल बने..!!

पीयूष के रिश्तेदारों, मित्रों व प्रेमिका का उसके पिता के निधन पर न पहुँचना, उसको अंदर से तोड़कर रख दिया, अक्सर देखा गया है कि उम्मीद जब टूटती है तो इंसान या तो बिखर जाता है या निखर जाता है..!!

यहां ऋषभ के किरदार ने साबित कर दिया कि वो बिखरने वालो में से नहीं है, वो निखर कर ही दम लेगा..!!

पीयूष के दिवंगत पिता की अर्थी को कंधा देकर एक बेटे का फर्ज, एक मित्र का फर्ज, एक सामाजिक व्यक्ति का फर्ज उसने निभाया..!!

और हिम्मत दी पीयूष को, और नसीहत भी दी आगे के जीवन में बढ़ने के लिए दूसरों पर नहीं खुद पर भरोसा करने की..!!

पीयूष की पिता की तेरहवीं को संपन्न कर जब ऋषभ अपने घर लौटा तो वह कोरोना से संक्रमित हो चुका था और उसने खुद को क्वारंटाइन कर लिया..लेकिन दो दिन पश्चात ही उसको खबर मिली अपनी माँ को बुखार होने की..!!

फिर जो हुआ वो अगले भाग में...!!

#खुशियों_की_तलाश में सिर्फ लाश ही लाश..!!

© Nikhil S Yuva

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